Thursday 6 September 2012

धर्म क्या है?


धर्म क्या है?

धर्म पर क्या कहूं? जो कहा जा सकता है वह धर्म नहीं होगा। जो कल्पना से परे है, वह बोलने की शक्ति में नहीं हो सकता है। किताबों में जो है वह धर्म नहीं है, केवल शब्द ही हैं। वहाँ शब्द पक्ष की ओर ले जाने के भले ही संकेत हैं, पर वह  हक  नहीं हैं। शब्दों से पंथ बनते हैं, धर्म तो बहुत दूर रह जाता है। इन शब्दों ने मनुष्य को बाँट दिया है, मानव के बीच पत्थरों की दीवारें नहीं शब्दों की दीवारें हैं। मनुष्य और हक  के बीच भी शब्दों की ही दीवार है। वास्तव में जो हक से दूर किए हुए है, वही उसे सब से दूर किए हुए है। शब्दों का एक मजबूत घेरा है, हम सब उस  के बीच फस गए हैं, वह घेरा हमसे लिपटा हुआ है। शब्द ही हमारी बेहोशी हैं और शब्दों की सुंदर तस्बीह ( जाप ) में हम अपने आप से बहुत दूर निकल गए हैं। खुद से जो दूर है और खुदी से जो अनजान है वह हक  के पास और हक  को जानने वाला नहीं हो सकता। यह इसलिए कि खुद का जाना हुआ सत्य ही करीब का हक  है, बाकी सब दूर है,  बस खुद से खुदी दूर नहीं है। शब्द स्वयं को जानने नहीं देते, शब्दों का कोहराम इस ख़ामोशी को नहीं जानने नहीं देता जो मैं हूँ। शब्दों का धुआं उस आग को सामने आने नहीं देता जो कि हक  है और हम अपने कपड़ों को जानते-जानते मिट जाते हैं पर उससे नहीं मिल पाते जिसके कपड़े थे और जो कपड़े पहने हुए था। मैं जब भी अपने अंदर देखता हूँ, वहाँ शब्द ही शब्द नजर आते हैं।


 अल्लाह, रसूल, स्वर्ग,   नर्ग  आदि शब्द ही हैं। चाहे वह भावना हो, विचार हो, ज़िक्र हो, यह भी शब्द ही हैं। मैं  शब्दों के तह दर तह क़ैद खानों में बंद हूँ। क्या मैं इन गुमानों पर जो मैंने खुद बनाए हैं पर समाप्त हो जाऊँगा? या मैं उनसे अलग भी कुछ जानता हूँ, जिसे मैं अपना जाना हुआ कह सकता, अपना अनुभव कह सकता। इस सवाल पर सब कुछ टिका है और इस सवाल का जवाब भी अगर शब्दों से आया तो हक तक कभी नहीं पहुंचा जा सकता। क्योंकि मुझे लगता है मेरा ख्याल मेरे ख्याल की हद है। उसके पार क्या  है, उस की  तो  हवा भी नहीं लग सकती। और आमतौर पर लोग अपने गुमान और विचार से लौट आते हैं। यह दीवार गायब है जो दिखती नहीं है, इन्हें यहीं  से वापस कर देती है। जैसे कोई कुऑं खोदने जाए और कंकड़ और पत्थर को पाकर निराश होकर रुक जाए। वैसा ही अपनी खुदाई में होता है, यही वजह है कि नबी ने कहा कि निराशा कुफ़्र है। और यह होता है हम जब अपने भीतर जाते हैं तो शब्दों के कंकड़ और पत्थर ही हमें मिलते हैं और आत्मा तक पहुँच नहीं हो  पाती। आत्मा  तक पहुँचने के लिए  सारी परतें निकाल देनी पड़ती हैं और यह जरूरी भी है। शब्दों को जब तक खोदते रहना है, जब तक वह जो शब्दों में नहीं आ सकता (यानी शब्द उस को कवर नहीं कर सकते जो सब कवर किये हुए है), जब तक वह खामोश आईना नहीं मिल जाए (यानी भीतर का सुकून). यह खुदाई बहुत मुश्किल है, इसमें कीना, ईर्ष्या, जलन, क्रोध (यानी नफस-ए-अम्मारा) की  सभी सूरतो से सामना होता है। जो इससे पार पाता है, जो बाकी रहता है, वह भीतर का सुकून  (यानि नफस-ए-मुतमाइन्ना) पाता है।  यहीं से धर्म शुरू होता है, इसी को सिरातल-मुस्तकीम (यानि सीधा रास्ता) कहते हैं, यही मेरा जाना हुआ  हक  है।.

धर्म निर्धारित नहीं है, वह तो वह है जो सबको  चुनता है। एक-एक  विचार को एक-एक गुमान को दूर करते जाना है, चाहे अच्छा हो या बुरा हो। हक और कुछ नहीं, जहाँ विचार और भावना न रहें, रह जाए तो चेतना, केवल चेतना रह जाए। .

यह तो कल्पना का पालन करते हैं और वास्तव में कल्पना हक  की जगह नहीं ले सकती। 
(कुरआन, आयत संख्या 27)

 
जिस ने पहचाना अपने नफ्स को उसने पहचाना अपने रब को।
(हदीस रसूल करीम)

مذہب کیا ہے؟

مذہب پر کیا کہوں؟ جو کہا جا سکتا ہے وہ مذہب نہیں ہوگا، جو گمان سے پرے ہے ،وہ بولنے کی قوت میں نہیں ہو سکتا ہے، کتابوں میں جو ہے وہ مذہب نہیں ہے صرف الفاظ ہی ہیں وہاں الفاظ حق کی طرف لے جانے کے بھلے ہی اشارے ہوں ،پر وہ حق نہیں ہیں، لفظوں سے مسلک بنتے ہیں ،دین تو بہت دور رہ جاتا ہے ،ان لفظوں نے انسان کو باٹ دیا ہے، انسانوں کے بیچ پتھروں کی دیواریں نہیں لفظوں کی دیواریں ہیں،انسان اور حق کے درمیاں بھی لفظوں کی ہی دیوارہے،اصل میں جو حق سے دور کئے ہوئے ہے،وہی اسے سب سے دور کئے ہوئے ہے،لفظوں کا ایک مضبوط گھیرا ہے، ہم سب اس کے درمیاں پھس گئے ہیں،وہ گھیرا ہم سے لپٹا ہوا ہے الفاظ ہی ہماری بیہوشی ہیں،اور لفظوں کی خوبصورت تسبیح میں ہم اپنے آپ سے بہت دور نکل گئے ہیں، خود سے جو دور ہے اور خود سے جو انجان ہے وہ حق کے قریب اور حق کو جاننے والا نہیں ہو سکتا یہ اس لئے کہ خود کا جانا ہوا حق ہی قریب کا حق ہے،باقی سب دورہے بس خود سے خودی دور نہیں ہے ،الفاظ خود کو جاننے نہیں دیتے لفظوں کا کوہرام اس خاموشی کو نہیں جاننے نہیں دیتا جو کہ میں ہوں ، لفظوں کا دھواں اس آگ کو سامنے نہیں آنے دیتا جو حق ہے،اور ہم اپنے کپڑوں کو جانتے جانتے مٹ جاتے ہیں اس سے نہیں مل پاتے جس کے کپڑے تھے اور جو کپڑے پہنے ہوئے تھا ،میں جب بھی اپنے اندر دیکھتا ہوں،وہاں الفاظ ہی الفاظ نظر آ تے ہیں۔

اﷲ،رسول، جنت ،دوزح وغیرہ الفاظ ہی ہیں،چاہے وہ گمان ہو،خیال ہو، ذکرہو یہ بھی الفاظ ہی ہیں، اور میں لفظوں کے تہہ در تہہ قیدخانوں میں بند ہوں، کیا میں ان گمانوں پر جو میں نے خود بنائے ہیں پر ہی ختم ہو جاؤں گا ؟یا کہ میں ان سے الگ بھی کچھ جانتا ہوں ،جسے میں اپنا جانا کہہ سکوں اپنا مشاہدہ کہہ سکوں،اس سوال پر ہی سب کچھ ٹکا ہے؟اور اس سوال کا جواب بھی لفظوں سے آیا تو حق تک کبھی نہیں پہنچا جاسکتا،کیوں کہ میرا خیال ہی میرے خیال کی حد ہے ،اس کے پار کیا ہے اس کی تو ہوا بھی نہیں لگ سکتی ،اور عام طور پر لوگ اپنے گمان اور خیال سے ہی واپس لوٹ آتے ہیں،یہ دیوار غائب ہے جو دکھتی نہیں ہے،انہیںیہیں سے ہی واپس کر دیتی ہے،جیسے کوئی کنواں کھودنے جائے اور کنکڑ اور پتھر کو پا کر مایوس ہوکر رُک جائے ، ویسا ہی اپنی کھدائی میں بھی ہوتا ہے ،یہ ہی وجہ ہے کہ نبی نے فرمایا کہ مایوسی کفر ہے،اور یہ ہوتا ہی ہے ہم جب اپنے اندر جاتے ہیں تو لفظوں کے کنکڑ اور پتھر ہی ہمیں ملتے ہیں،روح تک رسائی نہیں ہو پاتی روح کی رسائی کے لئے یہ ساری پرتیں نکال دینی پڑتی ہیں،اور یہ ضروری بھی ہے،لفظوں کو جب تک کھودتے رہنا ہے، جب تک کے وہ جو لفظوں میں نہیں آسکتا یعنی الفاظ اس کا احاطہ نہیں کر سکتے جس نے سب کا احاطہ کر رکھا ہے، جب تک وہ خاموش آئینہ نہ مل جائے (یعنی ذات حق)یہ کھدائی بہت مشکل ہے،اس میں کینہ،بغض ،حسد،جلن ،غصّہ یعنی نفس امّارہ کی تمام صفاتوں سے سامنا ہوتا ہے، جو اس سے پار پاتا ہے ،وہ جو باقی رہتا ہے وہ نفس مطمئنہ پر فائض ہوتا ہے یہیں سے دین شروع ہوتا ہے،اسی کو صراط المستقیم کہتے ہیں یہی میرا جانا ہوا حق ہے۔


مذہب منتحب نہیں ہے وہ تو وہ ہے جو سب کو انتخاب کرتا ہے، ایک ایک خیال کو ایک ایک گمان کودور کرتے جانا ہے چاہے اچھّا ہو یا برا حق اور کچھ نہیں جہاں خیال اور گمان نہ رہیں،رہ جائے تو شعور صرف شعور رہ جائے۔

اِنْ یَتَّبِعُوْنَ اِلاَّ الظَّنَّ واِنَّ الظَّّنَّ لَاےُغْنِیْ مِنَ الْحَقِّّ شَیْئاًْ 
(یعنی یہ تو اپنے گمان کی پیروی کرتے ہیں اور بیشک گمان حق کی جگہ نہیں پہونچ سکتا)
(قرآن آیت نمبر ۲۷ سورۃ نجم)

مَنْ عَرَفَ نَفْسَہُ فَقَدْ عَرَفَ رَبَّہُ
(یعنی جس نے پہچانا اپنے نفس کو اس نے پہچانا اپنے رب کو) 
(حدیث رسول کریم)



(By sayyad tufail ahmad (raja kavishi

3 comments:

  1. वाह... बहुत ही बेहतरीन लिखा है.... हालाँकि कुछ बातें समझ में नहीं आई....

    अभी थोड़ी जल्दी में हूँ... आपसे विस्तार से मालूम करूँगा...

    ReplyDelete
  2. कुछ कमी सी महसूस होती है, जिसका एहसास मुझे भी सोंचने पर मजबूर करता है.
    अब हमें एसा होना है जो हम नहीं सोंच सकते,
    जो एक ही हो.....



    धन्यवाद

    ReplyDelete